पढ़िए देश को आईना दिखाता तनवीर का यह आर्टिकल- कश्मीर वह नहीं है, जो मीडिया हमें दिखाता है !
आज कल के तनाव को देखते हुए ऐसा लगता है की मैं कश्मीर से सही समय पे निकल आया. मगर सवाल केवल मेरा नहीं है, देश के एक ऐसे भाग का है जो की भारत के सर का मुकुट है. बहुत से लोग कश्मीर को भारत का अंग नहीं मानते हैं. वह लोग ग़लतफ़हमी में हैं. कश्मीर का फैसला अक्टूबर १९४७ में ही हो गया था, जब वहां के महाराजा ने भारत के साथ संधि पे हस्त्याक्षर किये थे. इस संधि के तहत सम्पूर्ण कश्मीर, जिसमें पाकिस्तान द्वारा क़ब्ज़ा किया हुआ भाग भी है, भारत का होना चाहिए था. बहुत से लोग तर्क देंगे की महाराजा अकेले को ऐसी संधि करने का अधिकार नहीं था, क्योंकि वह खुद अपनी राज-गद्दी मय लाव-लश्कर छोड़ श्रीनगर से जम्मू भाग चुके थे. कश्मीर के लोग पाकिस्तान के साथ क्यों जाना चाहेंगे ये जानते हुए की पाकिस्तान में आज भी उत्तर भारत से गए लोग महाजिर (बहरी) कहलाते हैं. कश्मीर के लोगों और भारत के दूसरे भाग के लोगों के बीच डायरेक्ट संवाद ही हल निकाल सकता है. मुझे वहां हर कोई बात करने के लिए आतुर लगा. बात-चीत से ही हल है.
क्या कश्मीर ‘अलग’ देश बन रह सकेगा. नहीं!
बन जायेगा वह दूसरा पाकिस्तान या अफगानिस्तान. भारत की छत्र -छाया में, भारत की प्रगति में शामिल हो कश्मीर धरती की जन्नत बना रहेगा. निकाल फेंकना होगा वहां से मुफ़्ती और अब्दुल्लाह जैसे लोगों को.अब समय है वहां नयी लीडरशिप का. लीडर्स जो उनके हो. उनके अपने, और जो भारत की अखंडता पे विश्वास रखते हो.
एक साधारण कश्मीरी छला गया है. चुनाव वहां हमेशा मज़ाक़ रहे. मुझे याद है १९८० का लोक सभा चुनाव. फ़ारूक़ अब्दुल्लाह निर्विरोध चुने गए. वंशवाद का बोलबाला रहा. शेख अब्दुल्लाह का बेटा जो अपनी रंगीन पार्टी (ऐय्याशी) के लिए कुख्यात था, कैसे संभाल सकता धरती के स्वर्ग को. बल समाधान कभी नहीं हुआ है, हल संवाद से है. संवाद, मगर किस्से?
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कश्मीर के छात्र-छात्रा मुझे भारत की किसी अन्य यूनिवर्सिटी से भिन्न नहीं लगे. आँखों में सपने सजाये वह भी सुन्दर भविष्य की चाह रखते हैं. मुख्य धारा में उनको आना होगा. खुद में सिमटे रह कर ख्वाब उनके पूरे नहीं होंगे. जो संपन्न हैं, उनके लिए विदेश में जाकर बसने का रास्ता है, मगर एक आम कश्मीरी को भारत पे विश्वास करना होगा. मगर विश्वास वह कैसे करे. नेहरू और गाँधी के आश्वासन के बाद बहुत पानी झेलम में बह चुका है. कश्मीर की लड़ाई मज़हब की नहीं है, बात सिर्फ कश्मीरियत की है. खुले दिमाग से संवाद की है. देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले नफा-नुकसान से परे हट कर देखोगे तो कोई रास्ता निकल ही आएगा. सिर्फ कश्मीर की धरती (वह भी बिना कश्मीरियों के), की चाह रखना भारत सरकार की बहुत बड़ी भूल होगी …
मैं ये बात जनता हूँ, क्योंकि मैंने कश्मीर देखा है. कश्मीर वह नहीं है, जो मीडिया हमें दिखाता है. कश्मीरी लोग वह नहीं है, जिनसे डरा जाये, प्यार और मोहब्बत से क्या नहीं जीता जा सकता है.
कश्मीर का मामला पेचीदा है. दुःख होता है जब कहीं भी बे-क़सूर मारे जाते है, जिनका इन चीज़ों से कोई लेना-देना नहीं होता है. हम को शुक्र गुज़ार होना चाहिए सरहद पे ड्यूटी कर रहे उन जवानों का, जिन के कारण हम शांति से सो सकते हैं, क्योंकि देश उनके कारण आज सुरक्षित है ।
-लेखक तनवीर सलीम वरिष्ठ स्तंभकार हैं ।