जब ईश्वर और ख़ुदा के बीच कोई फ़ासला नहीं तो उनके मंदिर और मस्जिद एक साथ क्यों नहीं रह सकते ?
सुप्रीम कोर्ट द्वारा राम जन्मभूमि मंदिर और बाबरी मस्जिद के विवाद को मध्यस्थता से सुलझाने की आज की कोशिश एक बेहतरीन कदम है। उसे पता है कि इस मसले को जमीन का विवाद मानकर फैसला देने से विवाद सुलझने के बज़ाय कुछ और उलझेगा। उसका फैसला जिसके पक्ष में भी जाए, बहुत सारे दर्द और सवाल छोड़ जाएगा। हिन्दुओं के पक्ष फैसले के बाद राम मंदिर बन भी जाय तो देश के मुसलमानों में लंबे अरसे तक फैसले की टीस बनी रहेगी। फैसला अगर मुस्लिमों के पक्ष में गया तो मंदिर के लिए संघर्षरत हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग इसे किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेगा। इस स्थिति में तर्क, क़ानून और संविधान पर आस्था को तरज़ीह देने वाले इस देश की सांप्रदायिक स्थिति कैसी भयावह होगी इसकी कल्पना कुछ मुश्किल नहीं है। इस संवेदनशील मामले का हल सभी पक्षों द्वारा मिलकर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में ही निकाला जाना उचित होगा।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त तीनों मध्यस्थों की कोशिशें तभी सफल होगी जब विवाद से जुड़े सभी पक्ष अपनी हठधर्मिता छोड़कर लचीला रुख अपनाएं। यदि मुस्लिम इस बात पर अड़े रहे कि विवादास्पद जमीन पर उन्हें बाबरी मस्जिद से कम कुछ भी स्वीकार नहीं है तो अब यह मुमकिन नहीं है। हिन्दू अगर इस बात पर कायम रहे कि वहां सिर्फ राम मंदिर बने और मस्जिद को सरयू के पार कहीं स्थानांतरित कर दिया जाय तो यह भी नहीं होने वाला। मेरी समझ में जन्मभूमि मानी जाने वाली जगह पर मंदिर और उसके बगल में मस्जिद बनाने का फार्मूला मध्यस्थता के लिए प्रस्थान-बिंदु हो सकता है। जब ईश्वर और ख़ुदा के बीच कोई फ़ासला नहीं तो उनके मंदिर और मस्जिद एक साथ क्यों नहीं रह सकते ? यह कहना फ़िज़ूल है कि मंदिर और मस्जिद के एक साथ होने से अनंत काल तक विधि-व्यवस्था की समस्या बनी रहेगी। इस देश के कई शहरों और गांवों में मंदिर और मस्जिद का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व क़ायम है। पटना में जंक्शन के सामने सैकड़ों सालों से शान से अगल-बगल खड़े पुराने महावीर मंदिर और जामा मस्जिद शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है। यहां किसी त्योहार के वक़्त मुस्लिम हिन्दू श्रद्धालुओं की और ईद-बकरीद के दौरान हिन्दू नमाज़ियों की सेवा का बेहतरीन उदाहरण पेश करते रहे हैं।
देश के विषैले सियासी माहौल देखते हुए आशंका यह है कि सुप्रीम कोर्ट की मध्यस्थता में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल क़ायम करने की किसी भी कोशिश का साथ देने कोई पक्ष आगे भी आएगा। आखिर राजनीति और धर्म के ठेकेदारों की रोजी-रोटी ऐसे अनसुलझे सवालों से ही तो चलती है।
-लेखक ध्रुव गुप्त पूर्व आईपीएस और वरिष्ठ साहित्यकार हैं ।