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November 22, 2024
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जरुर पढ़ें – दशहरे पर भारतवासियों के नाम रावण का संदेश !

  • October 19, 2018
  • 1 min read
जरुर पढ़ें – दशहरे पर भारतवासियों के नाम रावण का संदेश !

सभी भारतवासियों को दशहरे की शुभकामनाएं ! आज का यह दिन राम के हाथों मेरी पराजय और मृत्यु का दिन है। यह मेरे लिए उत्सव का दिन है क्योंकि एक योद्धा के लिए विजय और पराजय से ज्यादा बड़ी बात उसका पराक्रम है। मुझे गर्व है कि अपने जीवन के अंतिम युद्ध में मैं एक योद्धा की तरह लड़ा और मरा। आप कह सकते हो कि मुझमें अहंकार था और यही अहंकार मेरे पराभव का कारण बना। यही अहंकार मेरी तमाम विद्वता और ज्ञान को ले डूबा। मैं स्वीकार करता हूं कि मुझमें अहंकार था। इसी अहंकार में मुझसे कुछ अपराध भी हुए हैं। लेकिन आपमें से कौन है जिसमें थोड़ा या बहुत अहंकार नहीं और जिसने अपने जीवन में कोई अपराध नहीं किया है ? अपने अपराध का दंड मृत्यु के रूप में मैं राम से पा चुका हूं। उनके हाथों मरने के बाद भी राम के प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा है। राम ज्ञानी थे। वे भी शिवभक्त थे और मैं भी। वे मेरी विद्वता का सम्मान करते थे। मेरी मृत्यु पर वे दुखी भी बहुत हुए थे। मेरे कुछ दुर्गुणों के बावजूद वे मेरे ज्ञान और मेरी शासन-प्रणाली के प्रशंसक थे। मेरे मरने से पहले उन्होँने ज्ञान की याचना के लिए अपने भ्राता लक्ष्मण को मेरे पास भेजा था।

युद्ध मेरे और राम के बीच हुआ था। युद्ध में किसी एक पक्ष को मरना था। राम ने मुझे मारा और मैंने अपनी मृत्यु को विनम्रता से स्वीकार किया। अब आप कौन हो जो सहस्त्रों सालों से निरंतर जलाए जा रहे हो मुझे ? एक अपराध की कितनी बार सज़ा होती है आप हिन्दुओं के नीतिशास्त्र में ? आपकी संस्कृति में तो युद्ध में लड़कर जीतने वालों का ही नहीं, युद्ध में लड़कर मृत्यु को अंगीकार करने वाले योद्धाओं को भी सम्मान देने की परंपरा रही है। फिर हर साल एक योद्धा की मृत्यु का उत्सव किस लिए ? राम के चरित्र और पराक्रम को थोडा और बड़ा दिखाने के लिए मुझे थोड़ा और चरित्रहीन और दुराचारी दिखाना संभवतः आपकी विवशता है। मैंने आपके साथ क्या दुराचार किया था ? अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के लिए मैंने देवी सीता का अपहरण अवश्य किया था, लेकिन उनके साथ मैंने कभी कोई अमर्यादित आचरण नहीं किया। आपके ऋषि बाल्मीकि ने भी मेरे इस आचरण की पुष्टि करते हुए लिखा है – ‘राम के वियोग में दुखी सीता से रावण ने कहा कि यदि आप मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती तो मैं आपका स्पर्श नहीं कर सकता।’ आपके शास्त्रों में वंध्या, रजस्वला और अकामा स्त्री के स्पर्श का निषेष है। मैंने अपने प्रति अकामा सीता का स्पर्श न करके शास्त्रोचित मर्यादा का ही पालन किया था।
https://www.youtube.com/watch?v=crKO9gwYUAs

आपसे मेरी एक शिकायत यह भी है कि जलाने के पहले मेरे इतने कुरूप और वीभत्स पुतले आप क्यों बनाते हो ? वास्तव में मैं ऐसा कुरूप नहीं था। मेरे दस सिर भी नहीं थे। लोगों द्वारा मेरे दस सिर की कल्पना मात्र यह दिखाने के लिए थी कि मुझमें दस लोगों के बराबर बुद्धि थी और बल भी। जैसा कि आप सोचते हो, मैं सदा प्रचंड क्रोध से नहीं भरा रहता था और न बात-बेबात अट्टहास ही किया करता था। मुझमें शिष्टाचार भी था और स्थितियों के अनुरूप आचरण का विवेक भी। देखने में मैं आपके राम से कम रूपवान नहीं था। तब मेरे रूप-रंग और शारीरिक सौष्ठव के उदाहरण दिए जाते थे। स्वयं राम मुझे पहली बार देखकर मोहित हो गए थे। मुझपर विश्वास नहीं तो आप अपने ऋषि वाल्मीकि के ये शब्द पढ़ो – ‘अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥’ अर्थात रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौंदर्य, धैर्य, कांति सहित सभी लक्षणों से युक्त रावण में यदि अधर्म बलवान न होता तो वह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।’

कहीं हर वर्ष मुझे जलाकर और मेरी हत्या का समारोह मनाकर आप अपने भीतर के काम, क्रोध और अहंकार से आंखें चुराने का प्रयास तो नहीं कर रहे होते हो ? यदि ऐसा है तो यह आपके लिए भी घातक है। अहंकार मेरे पतन का कारण बना। आपको दशहरे पर किसी को जलाना हो तो अपने भीतर के अहंकार को ही जलाओ ! मैंने आपका कुछ नहीं बिगाड़ा। जिसका बिगाड़ा था, वह मुझे दंड दे चुका है। आश्चर्य मुझे इस बात का भी है कि मुझ सारस्वत ब्राह्मण पुलस्त्य ऋषि के पौत्र और विश्रवा के पुत्र को आप महाज्ञानी ब्राह्मण भी कहते हो और उस महाज्ञानी ब्राह्मण की हत्या का समारोह भी करते हो। क्या यह राक्षसी आचरण नहीं है ?
https://www.youtube.com/watch?v=bLLJIm-4MAU

हे भारतवासियों, सहस्त्रों वर्षों से दहन की यातना झेलते-झेलते मैं अब थक चुका हूं। आपके लंबे इतिहास में मैं अकेला अपराधी नहीं था। मुझसे भी बहुत बड़े-बड़े अभिमानी, दुराचारी और हत्यारे आपके यहां हुए हैं। मेरा अपराध उनसे बड़ा नहीं था, फिर भी मैं अकेला ही जल रहा हूं हर वर्ष। क्या मुझे इस अपमान से मुक्ति कभी नहीं मिलेगी ? मुझे सम्मान चाहे न दो, कम से कम यह सोचकर ही मुझे अपने हाल पर छोड़ दो कि अगर यह रावण नहीं होता तो आपके राम को आज कोई याद भी नहीं करता !

– लेखक ध्रुव गुप्त, पूर्व आईपीएस हैं | आलेख साभार