दुनिया की कोई भी विचारधारा या कोई भी धर्म एक इंसानी जान से ज्यादा कीमती नहीं हो सकते,लेकिन दुर्भाग्य से दुनिया में सबसे ज्यादा इंसानी हत्याएं धर्म या विचारधारा के नाम पर ही हुई है। आधुनिक विश्व में विचारधारा के नाम पर क़त्लेआम का सबसे वीभत्स रूप वामपंथ ने दिखाया है। रूस,चीन और कुछ अन्य कम्युनिस्ट देशों में मार्क्सवाद, माओवाद से असहमति रखने वाले लाखों लोगों का जिस बेरहमी से क़त्लेआम किया गया, वह हमारे समय का सबसे बड़ा कलंक है। आज़ादी के बाद भारत में विचारधारा के नाम पर हत्याओं की शुरुआत भी वामपंथ के एक घड़े माओवाद या नक्सलवाद द्वारा हुई जो आज भी बेरोकटोक ज़ारी है। घुर वामपंथ के बाद विचारधारा के नाम पर क़त्लेआम की ज़िम्मेदारी पिछले कुछ सालों से देश में घुर दक्षिणपंथ ने उठा लिया है।
वैचारिक असहमति के नाम पर प्रखर पत्रकार गौरी लंकेश की कायराना हत्या और कुछ कट्टर संगठनों द्वारा इस हत्या का जश्न इसी दक्षिणपंथी फासीवाद के सिलसिले की कड़ी है। नक्सलियों द्वारा पेट के लिए सत्ता की बंदूकें ढोने वाले जवानों की हत्या के बाद कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों को भी हमने ऐसा ही जश्न मनाते देखा है। कट्टर वामपंथ के बाद अब कट्टर दक्षिणपंथ द्वारा देश में असहमति रखने वाले लोगों को जिस तरह ठिकाने लगाया जा रहा है, पीटा जा रहा है या ट्रोल किया जा रहा है, वह बेहद चिंताजनक स्थिति है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह बुरा और चुनौतियों से भरा समय है। समय रहते इस फासीवादी प्रवृति का चौतरफ़ा विरोध होना चाहिए, लेकिन दिक्कत यह है कि प्रगतिशीलता के नाम पर हमारा विरोध भी आमतौर पर एकतरफ़ा ही होता है। और शायद इसीलिए बेअसर भी। इस एकतरफ़ा विरोध से कट्टर दक्षिणपंथी ताकतों को ख़ुराक भी मिल रही है और ताक़त भी। हमारा कोई भी विरोध तबतक बेअसर रहेगा जब तक हम वामपंथी और दक्षिणपंथी – दोनों तरह के फासीवाद के खिलाफ़ एक साथ नहीं उठ खड़े होते।
-लेखक ध्रुव गुप्त पूर्व आईपीएस हैं |