बेबाक, निष्पक्ष, निर्भीक
November 21, 2024
ब्लॉग विचार

‘कानून सिर्फ सजा दे सकता है, समाज की घिनौनी मानसिकता नहीं बदल सकता’

  • May 9, 2017
  • 1 min read
‘कानून सिर्फ सजा दे सकता है, समाज की घिनौनी मानसिकता नहीं बदल सकता’

रमेश ठाकुर

दुष्कर्म मामले में आखिरी फांसी 14 अगस्त, 2004 को पश्चिम बंगाल में दोषी धनंजय चटर्जी को दी गई थी, जिसने एक स्कूली छात्रा के साथ दुष्कर्म करने के बाद उसकी निर्मम हत्या कर दी थी। सवाल उठता है क्या उसके बाद दुष्कर्म की घटनाएं रुकीं ? ऐसे कृत्य करने वालों में भय पैदा हुआ ? शायद नहीं! निर्भया मामले के दोषियों को फांसी देने से क्या दुष्कर्म जैसे घिनौने अपराधों से मुक्ति मिल जाएगी? यही वो सवाल है जो बार-बार मन को करौंदता है। निर्भया के दोषियों पर सजा मुकर्रर हो चुकी है।
सूली पर लटकाने का फरमान कभी भी देर-सवेर सुनाया जा सकता है। जनमानस ने इस मामले में फांसी से कम अपेक्षा भी नहीं की थी। लेकिन क्या समाज की मानसिकता में जो गंदगी भरी है, उसे इस फांसी से साफ किया जा सकता है? कानून सिर्फ सजा दे सकता है, लेकिन समाज की घिनौनी मानसिकता नहीं बदल सकता। इसके लिए पूरे समाज को एकजुट होकर आगे आने की जरूरत है। महिलाएं इज्जत के साथ निर्भय होकर घर से निकले सकें, ऐसा माहौल की कल्पना करने की दरकार है। निर्भया केस में विरोध की जो अलख जनमानस ने जगाई थी, वैसी अलख सभी अपराधों के खिलाफ जगनी चाहिए।
निर्भया के दोषी फांसी के नहीं, सार्वजनिक रूप से रूह कांपने वाली सजा के हकदार हैं। फांसी की सजा उनके क्रूर अपराध की प्रासंगिकता को कम कर रही है। इतने घृणित अपराध में फांसी की सजा नाकाफी सी लग रही है। जिस क्रूर अपराध ने देश-दुनिया को आंसूओं के सैलाब की सुनामी से सराबोर कर दिया हो) उन दोषियों को फांसी देकर इतनी आसानी से नहीं मारना चाहिए बल्कि तिल-तिल कर मारना चाहिए ताकि ताउम्र उस पीड़ा का अहसास करते रहें। फांसी किसी जघन्य अपराध का विकल्प नहीं हो सकती है। उससे कहीं मुफीद उम्रकैद होती है।
16 दिसंबर की रात आधा दर्जन जिन भेड़ियों ने निर्भया को जो ज़ख्म और असहानीय पीड़ा दी, उसकी हम मात्र कल्पना ही कर सकते हैं। घटना को बर्बर और बेहद ही क्रूर ठंग से अंजाम दिया गया था। कोर्ट ने जब फैसला सुनाया, पूरा कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इसके अलावा पूरा देश फैसले का जानने के लिए अपने घरों में टीवी से चिपके हुए थे। फैसले के प्रति लोगों की खुशी और बैचेनी यह बताने को काफी थी कि दोषियों को इतनी आसानी से मौत नहीं देनी चाहिए।
वहशियाने की सारी हदों को पार करने वाले सभी छह भेड़ियों में एक नाबालिग होने का फायदा उठाकर इस समय खुली फिजा में घूम रहा है। एक ने पहले ही जेल में आत्महत्या कर ली थी, बाकी बचे चार दुर्दांती को फांसी की सजा मुकर्रर की गई है। फांसी पर लटकने के बाद मन में एक कसक रह जाएगा कि उन्हें बिना यातनाओं के इतनी सहज सजा क्यों दी ? दोषियों ने उस बच्ची का इस्तेमाल अपने मनोरंजन के लिए किया था। घटना को जिस क्रूरता के साथ अंजाम दिया गया था, उससे लग रहा था कि यह घटना इस धरती की नहीं, बल्कि किसी और ग्रह की है। घटना ने सभी को रोने पर मजबूर कर दिया था। हर वर्ग के लोगों को झकझोर कर रख दिया था। इसलिए सभी को शांति तब मिलेगी जब सभी दोषियों को कठोरता से सजा मिले।
फांसी से एक झटके में सब खत्म हो जाएगा, इसलिए इस अपराध में फांसी नाकाफी सी लगती है। ज्योति सिंह के लिए सोलह दिसंबर की रात इतनी महंगी पड़ गई कि उसकी खुद की पहचान ही बदल गई। घटना के बाद किसी ने दामिनी तो किसी ने निर्भया नाम दे दिया! आखिर क्यों? उसकी पहचान क्यों छिपानी चाहिए ? उसके माता-पिता शुरू से ही मांग कर रहे हैं कि उसकी बेटी का नाम ज्योति सिंह है, उसको उसके नाम से ही संबोधित किया जाए, और किया भी जाना चाहिए। (अपराध उसने नहीं किया कि उसे नाम छिपाना पड़े, मगर समाज का द्रष्टिकोण देखिए)।
अपराधी तो पुरुष होता है, जबकि अस्मत नारी की तार-तार होती है। कैसा मापदंड निर्मित कर रखा है हमने ? फिर क्यों ऐसे मामलों में नारी का नाम छीन लिया जाता है। देखा जाए तो ज्योति सिंह दुष्कर्म मामले में उच्च न्यायायल ने वक्त के तकाजे और समाज की उम्मीदों के मुताबिक फरमान जारी किया है।
दुष्कर्म एक नारी का नहीं, बल्कि हमारे कछुआ चाल सिस्टम का होता है। उस सजा का क्या मतलब, जब न्याय पाने की उम्मीद धुंधली पड़ जाए। ज्योति के साथ हुए हादसे से लेकर अब तक साढ़े चार साल गुजर गए। उसके बाद यह फैसला आया। अपराधी लचर कानून-व्यवस्था का ही फायदा उठाता है। सोलह दिसंबर की घटना मीडिया में आकर बड़ी हो गई, पर इस तरह की घटनाएं रोजाना घटती हैं। यों कहें कि हालात आज भी पहले जैसे ही हैं। कोई सुधार नहीं हुआ। असुरक्षा और बढ़ी है, हादसे और बढ़े हैं। प्रशासन तमाम वादे करके फिर से अपनी पोल खोल चुका है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकारों द्वारा किए जाने वाले दावों की हकीकत कभी भी धरातल पर नहीं उतरती। जमकर राजनीति होती है।
पिछली कांग्रेस सरकार ने एक हजार करोड़ रुपये से निर्भया फंड बनाया था। मौजूदा मोदी सरकार ने पिछले बजट में इतने ही और पैसे इस फंड में डाले हैं, पर इसके इस्तेमाल की कोई योजना प्रस्तुत नहीं की गई है। न जाने किस मुहूर्त का इंतजार हो रहा है।
-(ये लेखक के निजी विचार हैं)