मोदी लहर से बचने को तिनके का सहारा ढूंढ रहे राहुल गांधी !
चेन्नई के विपक्षी महाजोट में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उपस्थिति का मक़सद बर्थ-डे ब्वॉय एम. करुणानिधि को बधाई देना कम और नरेंद्र मोदी की लाई राजनीतिक सुनामी में ख़ुद को डूबने से बचाने के लिए तिनके तलाशना ज़्यादा था. हाल ही में हुए पाँच राज्यों के चुनावों में चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के हाथों हुई चुनावी हार के बाद काँग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के लिए अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ना ज़्यादा ज़रूरी हो गया है. न तो वो प्रभावी तरीक़े से गाय के मुद्दे की काट ढूँढ पा रहे हैं और न ही राष्ट्रभक्ति को मोदी-भक्ति से जोड़ दिए जाने का सही जवाब तलाश पा रहे हैं. इसलिए अब एक बार नए सिरे से बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता की कोशिशें हो रही हैं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने 1991 के चुनाव प्रचार के दौरान द्रविड़ मुनेत्र कषगम के भीष्म पितामह एम. करुणानिधि के काले चश्मे का मज़ाक उड़ाया था और पूछा था “काले चश्मे के पीछे क्यों छिपे हो, करुणानिधि जी?”
करुणानिधि ने पलट के जवाब दिया – “मैं काला चश्मा ज़रूर पहनता हूँ लेकिन बुलेटप्रूफ़ जैकेट नहीं पहनता.” उसी दौरान श्रीपेरुम्बुदूर में एक रात चुनाव प्रचार के लिए पहुँचे राजीव गाँधी के नज़दीक पहुँच कर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (एलटीटीई) की एक आत्मघाती बम हमलावर ने राजीव गाँधी की हत्या कर दी. क़रीब छब्बीस साल बाद उन्हीं राजीव गाँधी के बेटे और काँग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी कई और विपक्षी नेताओं के साथ काला चश्मा पहनने वाले एम. करुणानिधि का 94वां जन्मदिवस समारोह मनाने के बहाने चेन्नई में जुटे.
क्या लोग भरोसा करेंगे? काँग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी, राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी की ओर से माजिद मेमन, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई के डी. राजा, नेशनल कांफ़्रेंस के डॉक्टर फ़ारुख़ अब्दुल्लाह, जनता दल (यूनाइटेड) के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और तृणमूल काँग्रेस के डेरेक ओब्रायन आदि इस पार्टी में शामिल थे.
चेन्नई में एकजुट ये नेता यूँ तो भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ एक मज़बूत विपक्ष खड़ा करना चाहते हैं लेकिन उनकी इस कोशिश पर देश की जनता का भरोसा कैसे जगेगा जब इनमें से कई नेता बरसों तक भारतीय जनता पार्टी के साथ किसी न किसी मौक़े पर सत्ता में शामिल रहे?
अब वो बीजेपी को देश के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के लिए ख़तरा बताएँगे तो कौन उनकी बात पर भरोसा करेगा और क्यों?
ख़ुद द्रविड़ मुनेत्र कषगम काँग्रेस और बीजेपी के बीच झूलती रही है. वो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल रही पर 2003 में हालात को भाँपकर करुणानिधि ने एनडीए से पल्ला झाड़ लिया. 2004 के चुनावों के लिए काँग्रेस से गठबंधन कर लिया. यूपीए -I और यूपीए – II के दस बरसों के शासन के दौरान द्रमुक ने कई बार गठबंधन तोड़ने का फ़ैसला किया और आख़िर में 2014 के आम चुनाव से पहले अपनी धमकी पर अमल भी कर लिया. बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश कुमार ने अपने नेता जॉर्ज फ़र्नांडिस के साथ उस दौर में भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा था जब बीजेपी बाबरी मस्जिद ढहाने के कलंक से उबरने की कोशिश कर रही थी और लंबे समय तक कोई राजनीतिक पार्टी उसके साथ खड़े होने को तैयार नहीं थी.
और तो और सीताराम येचुरी की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समर्थन के वक्त बीजेपी के साथ खड़ी थी.
महागठबंधन की बीमारी तो नहीं बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद भारतीय जनता पार्टी को अलगाव के बियाबान से निकाल कर लाने वालों में जॉर्ज फ़र्नांडिस और नीतीश कुमार दोनों शामिल थे. वाजपेयी के दौर में जब ओडिशा में ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को दारा सिंह ने ज़िंदा जलाकर मार दिया था तब जॉर्ज फ़र्नांडिस ने बीजेपी, वाजपेयी सरकार और संघ परिवार का पुरज़ोर बचाव किया था और गोधरा कांड के दौरान नीतीश कुमार वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री थे. आज भी इस विपक्षी एकता की असलियत तब समझ में आती है जब सोनिया गाँधी के लंच में लालू प्रसाद यादव आते हैं तो नीतीश कुमार नहीं पहुँचते. पर अगले ही दिन वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से “बिहार के विषय” पर चर्चा करने के लिए दिल्ली पहुँच जाते हैं. और अब जब वो करुणानिधि के जन्मदिन समारोह में भाग लेने के लिए चेन्नई पहुँचते हैं तो लालू प्रसाद बीमार पड़ जाते हैं. ये लालू प्रसाद की नहीं बल्कि बिहार के महागठबंधन को लगी बीमारी के संकेत हैं.
विपक्ष के इस जमावड़े की पूर्वी ध्रुव ममता बनर्जी आज पश्चिम बंगाल में बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विस्तार की आशंकाओं से ख़ौफ़ज़दा हैं. पर वाममोर्चे के ख़िलाफ़ अपनी जंग में उन्होंने सबसे पहले नब्बे के दशक में पश्चिम बंगाल के स्थानीय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के साथ पर्दे के पीछे हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया था. ये पीवी नरसिंह राव का दौर था जब काँग्रेस में ममता बनर्जी को अलगाव में डालने की शुरुआत हो चुकी थी. उनके सामने एक मज़बूत वाम मोर्चा सरकार थी जिसे उखाड़ फेंकने का संकल्प उन्होंने ले लिया था. इस संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने पहली बार बीजेपी को बंगाल में अपने बीज बोने के लिए खेत मुहैया करवाया. अब बीजेपी का डर उन्हें काँग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के नज़दीक ला रहा है इसीलिए उन्होंने अपनी पार्टी के डेरेक ओब्रायन को चेन्नई भेजा.
धर्मनिरपेक्षता से समझौता होगा या नहीं?
आज बीजेपी के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाने को तैयार डॉक्टर फ़ारुख़ अब्दुल्लाह भी संघ परिवार की उस नाव में सवार हुए थे जिसके खेवनहार अटल बिहारी वाजपेयी थे. जब उनसे पूछा जाता था कि बीजेपी का साथ देने का विचारधारात्मक आधार क्या है तो वो जवाब देते थे – जम्मू कश्मीर संवेदनशील राज्य है इसलिए हमें केंद्र के साथ साथ चलना पड़ता है. रहे शरद पवार जिन्होंने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी को बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान किया था लेकिन जब ये स्पष्ट हो गया कि शिवसेना और बीजेपी की सरकार बनेगी तो उन्होंने कह दिया कि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों से वो क़तई समझौता नहीं करेंगे. पिछले तीन बरस में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गाय, सेना, भारत माता, राष्ट्रवाद, लव जिहाद, धर्मांतरण और सबके विकास का जो राजनीतिक नैरेटिव तैयार किया गया है उसमें किसे परवाह है कि शरद पवार या राहुल गाँधी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों से समझौता करेंगे या नहीं करेंगे, या फिर उसकी तह बनाकर उस पर अच्छी तरह से बैठ जाएँगे?