होली पर पढ़िए ध्रुव गुप्त का आर्टिकल : फिर तुम्हारी याद आई ओ सनम !
सामाजिकता का चलन ख़त्म होने के साथ हमारी उम्र के लोगों के लिए होली अब स्मृतियों और पुराने फिल्मी गीतों में ही बची रह गई है। रंग तो अब गुज़रे ज़माने की बात है। शाम को पड़ोस से आकर किसी ने पैरों पर अबीर रखकर प्रणाम कर लिया तो कर लिया। अभी यूट्यूब पर मनपसंद पुराने होली गीत सुन रहा था कि बचपन की होलियों की याद आई। तब दिन में हम गांव के कुछ लड़के-लडकियां रंग-अबीर लेकर गांव के तालाब के किनारे एकत्र होते थे। नियम था कि हर लड़का हर लड़की को रंग नहीं लगाएगा।
लड़कियों को स्वयंबर में आज के दिन के लिए अपना पति चुनना होता था। दूल्हे के चुनाव के बाद शुरू होता था जोड़ियों में एक दूसरे को रंग और अबीर लगाने का सिलसिला। थक जाने के बाद हम ‘पति-पत्नी’ घरों से चुराकर लाये पुआ-पूड़ियों और गुझियों का आपस में बंटवारा करके खाते। हिसाब लगाने बैठा तो बचपन की उन भूली-बिसरी पत्नियों की तादाद आधा दर्जन तो हो ही गई। उनमें से किसी एक से भी बचपन के बाद दुबारा मिलना नहीं हुआ। अब तो उनके नाम और चेहरे तक याद नहीं रहे। क्या पता उनमें से कुछ यहां फेसबुक पर भी हों और हम एक दूसरे को पहचान नहीं पा रहे हों। आज उन हरजाईयों की बहुत याद आ रही है।
क्या अबतक दादी-नानी बन चुकी बचपन की उन आधा दर्जन ‘पत्नियों’ को भी अपने इस परित्यक्त पति की याद आती होगी ?
-लेखक ध्रुव गुप्त, वरिष्ठ साहित्यकार और पूर्व आईपीएस हैं ।