सिनेमा का कोई अभिनेता किसी एक फिल्म से भी अमरत्व हासिल कर सकता है, इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण मरहूम अमजद खान हैं। वैसे तो अमजद ने कोई दो दर्जन से ज्यादा फिल्मों में खलनायक, सहनायक और चरित्र अभिनेता की विविध भूमिकाएं कीं, लेकिन उन स्टीरियोटाइप भूमिकाओं में कुछ भी अलग नहीं था। याद उन्हें सिर्फ ‘शोले’ में गब्बर सिंह की भूमिका के लिए ही किया जाता है। हिंदी सिनेमा के दर्शकों ने किसी डाकू का इतना खूंखार और नृशंस चरित्र न पहले कभी देखा था और न उसके बाद कभी देख पाए।
शायद भविष्य में भी नहीं देख पाए। एक ऐसा चरित्र जिसकी एक-एक हरकत उसके जीवनकाल में ही मिथक बनी। एक ऐसी संवाद-शैली जो देखने-सुनने वालों की सांसें रोक दे। एक ऐसी मुस्कान जो दर्शकों को भीतर तक सिहरा दे। एक ऐसी चाल जिसके एक-एक क़दम के साथ लोगों की धडकनें तेज से तेजतर होती चली जायं। याद नहीं आता कि हिंदी सिनेमा के सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में किसी और फिल्मी चरित्र को गब्बर जैसी मक़बूलियत हासिल हुई हो।
गब्बर की भूमिका शायद अमजद के लिए ही लिखी गई थी और अमजद शायद गब्बर बनने के लिए ही पैदा हुए थे। यह सही है कि परदे पर किसी चरित्र को गढ़ने में पटकथा, संवाद और निर्देशन की भी भूमिका भी होती है, लेकिन उस चरित्र में जान डालने की ज़िम्मेदारी अंततः अभिनेता की ही होती है। गब्बर की भूमिका अमजद की अभिनय-यात्रा का ऐसा शिखर था जिसे वे खुद दुबारा नहीं छू पाए। वे अभिनेता प्राण के बाद दूसरे ऐसे खलनायक हैं जिनसे लोग डरते भी हैं और जिन्हें बेपनाह प्यार भी करते हैं। अमजद खलनायिकी का ऐसा कीर्तिमान रचकर गए हैं कि पचास-पचास साल बाद भी जब कोई खलनायक सिनेमा के परदे पर बड़ी-बड़ी डींगें हांकेगा तो लोग कहेंगे – चुप हो जा बेटे, वरना गब्बर आ जाएगा !
पुण्यतिथि (27 जुलाई) पर खिराज़-ए-अक़ीदत, गब्बर !